


क्रिकेट हमें अक्सर सिखाता है कि मैदान पर हार-जीत से आगे भी एक खेल भावना होती है। लेकिन Vaibhav Suryavanshi के साथ दुबई में जो हुआ, उसने याद दिलाया कि भारत–पाकिस्तान की राइवलरी कितनी आसानी से उस रेखा को पार कर जाती है—खासतौर पर तब, जब सामने सिर्फ 14 साल का बच्चा हो।
शोर के बीच चुप्पी: एक वायरल क्लिप की असहज सच्चाई
अंडर-19 एशिया कप फाइनल में भारत की हार के बाद स्टेडियम के बाहर का एक वीडियो तेजी से फैला। कुछ पाकिस्तानी दर्शक वैभव को हूट कर रहे थे। प्रतिक्रिया? कोई पलटवार नहीं, कोई इशारा नहीं—बस शांत चाल और आगे बढ़ जाना।
यह संयम तारीफ के काबिल है, लेकिन सवाल यह है कि ऐसी परीक्षा एक किशोर के हिस्से क्यों आती है?
मैदान पर दबाव, बाहर अतिरिक्त बोझ
फाइनल का दिन वैभव के लिए पहले ही कठिन था। 348 के लक्ष्य का पीछा करते हुए भारत ने शुरुआती विकेट गंवाए। वैभव 26 रन पर खतरनाक दिख रहे थे, तभी Ali Raza की गेंद पर आउट हुए। विकेट के बाद हल्का-सा तकरार—और फिर वही दृश्य, जो इस मुकाबले में बार-बार दिखता है: भावनाएँ उफान पर।
यानी दबाव सिर्फ स्कोरबोर्ड से नहीं आता; माहौल भी उसे कई गुना बढ़ा देता है।
हार बड़ी थी, लेकिन बहस क्रिकेट से बाहर क्यों निकल गई?
पाकिस्तान ने फाइनल में पूरी तरह नियंत्रण रखा—347 रन बनाए, भारत 156 पर सिमट गया। 191 रनों की हार ने ट्रॉफी को औपचारिकता बना दिया। फिर भी चर्चा मैच प्लान, शॉट सेलेक्शन या गेंदबाज़ी पर नहीं, बल्कि भीड़ के व्यवहार पर टिक गई।
यह बताता है कि राइवलरी अब खेल से आगे निकलकर प्रतीकों की लड़ाई बनती जा रही है—जहाँ एक किशोर भी ‘फ्लैशपॉइंट’ बन सकता है।
स्टारडम की कीमत: जितनी तालियाँ, उतनी गालियाँ
टूर्नामेंट की शुरुआत में वैभव ने 171 की विस्फोटक पारी खेली थी। कुल 261 रन, 182.52 का स्ट्राइक रेट—ये आंकड़े 14 साल के खिलाड़ी के लिए असाधारण हैं। लेकिन यही पहचान उन्हें भीड़ की नजरों में बड़ा निशाना भी बना देती है।
यहाँ समस्या प्रदर्शन की नहीं, लेबल की है। जब हम किसी बच्चे को ‘सेंसेशन’ कहते हैं, तो क्या अनजाने में हम उससे वयस्कों जैसा मानसिक कवच भी उम्मीद करने लगते हैं?
राइवलरी की सीमा: कहाँ रुकना चाहिए?
भारत–पाकिस्तान मुकाबले में तीव्रता स्वाभाविक है, पर अंडर-19 स्तर पर वही तीव्रता बिना फ़िल्टर के उतर आए—यह चिंता की बात है। कोई आधिकारिक कार्रवाई शायद न हो, लेकिन संदेश साफ़ है: रेखा बार-बार धुंधली हो रही है।
क्रिकेट सिखाने का मंच होना चाहिए—सीख, गलती, सुधार। उसे ‘विलेन बनाम हीरो’ का शॉर्टकट नहीं बनना चाहिए।
अंत में सवाल, जवाब नहीं
वैभव का शांत रहना सराहनीय है। लेकिन असली परीक्षा उसकी नहीं, हमारी है—दर्शकों की, सोशल मीडिया की, और उस संस्कृति की जो बच्चों से भी वही कठोरता मांग लेती है जो बड़ों से।
अगर हम चाहते हैं कि ये खिलाड़ी लंबे समय तक खेलें, सीखें और बेहतर बनें, तो शुरुआत यहीं से होगी: उन्हें पहले बच्चा रहने देना, फिर खिलाड़ी बनाना।
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