“Kya Team India Management Dar Raha Hai? Youngsters ke Success ka Dar, Selection ka Sabse Bada Sach!”

 भारतीय क्रिकेट में अक्सर कहा जाता है कि “फॉर्म टेम्परेरी है, क्लास परमानेंट”, लेकिन आजकल ऐसा लगता है मानो चयनकर्ताओं के लिए “कंफर्ट जोन परमानेंट” हो गया है। शुबमन गिल की गर्दन की चोट अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हुई, दर्द कम जरूर हुआ है पर गया नहीं, और फिर भी मैनेजमेंट उन्हें किसी भी हालत में खिलाना चाहता है—जैसे उनके पास कोई और विकल्प है ही नहीं। सवाल ये नहीं कि गिल अच्छे खिलाड़ी हैं या नहीं, सवाल ये है कि क्या आधे-फिट खिलाड़ी पर भरोसा करना, पूरी तरह फिट और भूखे खिलाड़ियों के मुकाबले, वास्तव में समझदारी है या सिर्फ एक असुरक्षा का संकेत। जिस अंदाज में गौतम गंभीर, अजय जडेजा और अजीत अगरकर ने सरफराज, ईश्वरन या करुण नायर जैसे खिलाड़ियों को “भरोसे लायक नहीं” बताया, वह बात सिर्फ क्रिकेट तक सीमित नहीं रहती—वह भारतीय टीम की मानसिकता का असली चेहरा भी दिखाती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैनेजमेंट इस डर में जी रहा है कि अगर इन युवाओं को असली मौका दे दिया गया, और वे सफल हो गए, तो पुराने नामों की सत्ता दरकने लगेगी?

सरफराज पिछले दो साल से दरवाज़ा खटखटा रहे हैं, लेकिन जब अवसर सचमुच सामने आता है, तो अचानक मैनेजमेंट को उनकी “फर्स्ट-क्लास फॉर्म” याद आ जाती है—जबकि करुण नायर, जो 174* और 233 जैसे इनिंग खेलकर बैठे हैं, उन्हें भी नजरअंदाज करना आसान हो जाता है। यह सोच कहीं न कहीं यह डर भी दिखाती है कि शायद ये खिलाड़ी पहले ही मैच में कुछ ऐसा कर दें जो टीम मैनेजमेंट की चयन नीति पर सवाल खड़े कर दे। और अगर ईश्वरन को देखें—उन्हें सालों से स्क्वाड में घूमाया गया, नेट्स में तंग किया गया, लेकिन असली मुकाबले में एक भी बार भरोसा नहीं दिया गया। आखिर क्यों? क्या मैनेजमेंट इस बात से घबराता है कि अगर ईश्वरन डेब्यू में 70 या 100 मार गया तो लोग पूछेंगे कि इतने सालों तक इन्हें बाहर क्यों रखा गया?

गिल की चोट और उनके खेलने की जिद पर भी सवाल उठते हैं—वो डॉक्टर की सलाह के खिलाफ चले गए, टीम के साथ जुड़ गए, और अब आधे-तैयार शरीर के साथ फिटनेस टेस्ट में खुद को ठीक साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन असल सच्चाई यह है कि अगर मैनेजमेंट उन गैर-स्क्वाड खिलाड़ियों पर भरोसा करने को तैयार होता, तो शायद गिल को भी यह जोखिम लेने की जरूरत नहीं पड़ती। किसी खिलाड़ी को तब ही डर लगता है जब उसे पता होता है कि उसकी अनुपस्थिति में कोई नया खिलाड़ी जगह छीन सकता है। और अगर गिल को इस बात से डर नहीं होता, तो वह बिना हड़बड़ी आराम से ठीक होने बैठ सकते थे।

साई सुदर्शन और पडिक्कल को “दोनों लेफ्ट हैं” कहकर खारिज करना भी थोड़ी सतही सोच दिखाता है। भारत ने अपने इतिहास में कई बार लेफ्ट-हैंडर्स की भरमार के बावजूद सीरीज जीती हैं। यह बहाना शायद इसलिए चुना गया कि मुख्य मुद्दे—ब्रेकिंग द हाइरार्की—की बात ही न की जाए। क्योंकि असली समस्या लेफ्ट-राइट का कॉम्बिनेशन नहीं, बल्कि उस असुरक्षा की दीवार है जिसे टीम मैनेजमेंट टूटने नहीं देना चाहता। आधे-फिट गिल को चुनना और तैयार खिलाड़ियों को किनारे करना, यह बताता है कि भारतीय क्रिकेट में मौका मिलना हमेशा टैलेंट का प्रमाण नहीं था—कई बार यह सिर्फ इस बात का नतीजा रहा है कि कौन पहले से व्यवस्था के भीतर “सुरक्षित” माना जा चुका है।

अब जब साउथ अफ्रीका 15 साल बाद भारत में टेस्ट जीतकर आई है और सीरीज पर कब्जे से सिर्फ एक मैच दूर है, तो यह फैसला और भी संदिग्ध लगता है कि टीम इंडिया अपने ही सिस्टम पर इतना अविश्वास क्यों कर रही है। घरेलू क्रिकेट की मजबूत नींव पर गर्व किया जाता है, लेकिन जब उसे उपयोग करने का वक्त आता है, तो वही नींव नज़रअंदाज कर दी जाती है। यह डर कि कहीं सरफराज या नायर जैसे खिलाड़ी आते ही प्रदर्शन न कर बैठें और वर्तमान बराबरियों की स्थिति को हिला न दें—यह डर भारतीय टीम मैनेजमेंट की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुका है।

भारतीय क्रिकेट प्रशंसक यह तय नहीं कर पा रहे कि यह नीतिगत भ्रम है या खिलाड़ियों से प्रतिस्पर्धा का एक अनदेखा डर। पर यह बात साफ है कि जब भरोसा कुछ नामों की जागीर बन जाता है, तब बाकी टैलेंट सिर्फ एक लंबी प्रतीक्षा में फंस जाता है। और शायद यही वह वजह है जिसके चलते आज प्रश्न उठ रहा है—क्या सचमुच मैनेजमेंट युवा खिलाड़ियों को मौका देने से इसलिए डर रहा है क्योंकि वे सच में सफल हो सकते हैं? और अगर यह सच है, तो यह सिर्फ चयन की समस्या नहीं—यह Indian cricket की आत्मा से जुड़ी समस्या है।

भारतीय क्रिकेट में यह असुरक्षा बेहद सूक्ष्म लेकिन बेहद शक्तिशाली है—इतनी कि वह फैसलों का रुख बदल दे, चयन की दिशा मोड़ दे और टैलेंट के रास्ते में अदृश्य रुकावटें खड़ी कर दे। सरफराज, ईश्वरन और करुण नायर सिर्फ नाम नहीं हैं; वे उन सैकड़ों घरेलू खिलाड़ियों के प्रतीक हैं जो सालों तक मेहनत करके यह मानकर चलते हैं कि प्रदर्शन ही उनकी सबसे बड़ी भाषा है। लेकिन जब यह संदेश बार-बार दिया जाता है कि “हम तुम्हें चुनेंगे तभी जब बाकी खिलाड़ी टूट-फूट जाएँ,” तब यह समझ आ जाता है कि भारतीय क्रिकेट की असली समस्या फिटनेस या फॉर्म नहीं, बल्कि भरोसे के बंटवारे में छुपी हुई राजनीति है। गिल जैसे खिलाड़ी का आधे-फिट हालत में भी अजेय दिखना, और बाकी खिलाड़ियों का पूरी तरह फिट होकर भी अदृश्य बने रहना—ये विरोधाभास किसी भी सिस्टम में स्थिरता नहीं, बल्कि डर की गंध पैदा करता है।

यही डर मैनेजमेंट में भी नजर आता है। उन्हें लगता है कि अगर करुण नायर जैसे खिलाड़ी आकर पहले ही मैच में 80 या 120 ठोक दें, तो यह सवाल उठेगा कि इतने समय तक उन्हें क्यों बाहर रखा गया। अगर सरफराज आकर अपनी स्वाभाविक आक्रामकता में 60-70 रन बना गए, तो वह पूरी चयन फिलॉसफी को कटघरे में खड़ा कर देगा। और अगर ईश्वरन, जिन्हें वर्षों तक “भविष्य” कहकर बेंच पर रखा गया, डेब्यू में टिक गए, तो यह साबित हो जाएगा कि अवसर देना ही असली समस्या थी, न कि उनकी क्षमता। शायद यही वह डर है जो मैनेजमेंट को इन खिलाड़ियों को असली मौका देने से रोकता है—कहीं उनके सफल होने से वह भ्रामक विश्वास टूट न जाए कि “हम हमेशा सही चुनते हैं।”

टीम इंडिया के सिलेक्शन की यह बंद मानसिकता खिलाड़ियों को सिर्फ अनिश्चितता में नहीं डालती, बल्कि उन्हें एक ऐसी खामोश लड़ाई में धकेल देती है जिसमें जीतने का नियम ही अस्पष्ट है। खिलाड़ी चाहे जितना भी अच्छा खेल लें, चाहे जितनी भी मेहनत कर लें, चयन का लॉटरी टिकट उन्हें तभी मिलता है जब मैनेजमेंट को यह यकीन हो जाए कि उनसे कोई असुविधाजनक सवाल नहीं उठेगा। और यह मानसिकता खतरनाक है—क्योंकि यह टैलेंट को मारती नहीं, बल्कि चुपचाप सूखा देती है। भारतीय क्रिकेट की ताकत उसकी बेंच स्ट्रेंथ कही जाती है, लेकिन अगर उस बेंच को मैदान में आने ही न दिया जाए, तो स्ट्रेंथ सिर्फ एक भ्रम बनकर रह जाती है।

गुवाहाटी टेस्ट से पहले जो माहौल बनाया गया है, उसमें गिल खुद भी शायद दबाव में हैं—यह दबाव खुद को साबित करने का नहीं, बल्कि इस डर का कि उनकी अनुपस्थिति किसी नए खिलाड़ी को वह जगह न दे दे जिसकी वजह से टीम डायनेमिक्स बदल जाए। और सच कहें तो ऐसा माहौल किसी भी टीम के लिए स्वस्थ नहीं होता। खिलाड़ियों को एक-दूसरे से नहीं, बल्कि अवसर की अस्पष्टता से डर लगने लगता है। टीम मैनेजमेंट भी अपनी गलतियों को छुपाने में ही ज्यादा समय खर्च करने लगता है, बजाय यह स्वीकार करने के कि घरेलू प्रदर्शन को कमतर आंकना सही रास्ता नहीं है।

आखिर में यही सोच बार-बार सामने आती है—क्या भारतीय मैनेजमेंट इस बात से डरता है कि नए लड़के सचमुच सफल हो सकते हैं? अगर यह डर सच है, तो यह सिर्फ एक चयन विवाद नहीं बल्कि भारतीय क्रिकेट की उस मानसिकता का पर्दाफाश है जिसमें कुछ चुनिंदा नामों की सुरक्षा, टीम की असली मजबूती से ज्यादा महत्वपूर्ण मानी जाती है। और ऐसी मानसिकता जहां भी जड़ पकड़ ले, वहां टीम समय के साथ आगे नहीं बढ़ती—वह धीरे-धीरे एक ही दायरे में घूमती रह जाती है, तब तक जब तक कोई बड़ा झटका उसे आईना न दिखा दे।

भारतीय क्रिकेट में यह सिलसिला जितना लंबा खिंचता जा रहा है, उतना ही साफ होने लगा है कि यह कहानी सिर्फ “कौन बेहतर है” की नहीं, बल्कि “कौन सुरक्षित है” की है। सरफराज, ईश्वरन, करुण नायर—इन तीनों के नामों के पीछे वह बेचैनी छुपी है जो भारतीय मैनेजमेंट हर बार महसूस करता है जब कोई नया चेहरा दरवाज़ा खटकाता है। उनके प्रदर्शन की अनदेखी सिर्फ इसलिए करना आसान हो जाता है क्योंकि उन्हें मौका देने से वह पुराना ढांचा हिल सकता है जिसमें कुछ खिलाड़ियों की जगह तय है, चाहे वे आधे फिट हों, आउट ऑफ फॉर्म हों, या मैदान पर संघर्ष कर रहे हों। और यही बात भारतीय क्रिकेट को उस चक्र में फंसा देती है, जहाँ भविष्य सिर्फ उन नामों के इर्द-गिर्द घूमता है जिन पर पहले ही लेबल लग चुका है—“अनिवार्य”, “स्टार”, “सिस्टम का भरोसेमंद हिस्सा।”

यह सवाल जितना असहज है, उतना ही जरूरी भी—क्या मैनेजमेंट इस डर से जूझ रहा है कि अगर नायर ने वापसी में शतक मार दिया, अगर सरफराज ने डेब्यू में मैच बचा लिया, अगर ईश्वरन ने पहली ही पारी में धैर्य दिखा दिया, तो कहीं यह साबित न हो जाए कि चयन पिछले महीनों में गलत था? यह डर सिर्फ असुरक्षा नहीं, बल्कि उन फैसलों की रक्षा का प्रयास है जिन्हें मैनेजमेंट ने “सही” मानकर लिया था। और कोई भी सिस्टम तब कमजोर पड़ जाता है जब उसे अपने ही फैसलों के खिलाफ प्रतिस्पर्धा महसूस होने लगे। ऐसे माहौल में युवा खिलाड़ियों को खिलाना जोखिम नहीं, बल्कि खतरा लगता है—खतरा कि कहीं वे स्थापित खिलाड़ियों की नींव न हिला दें, कहीं वे दर्शकों और समीक्षकों को वह सवाल न पूछने पर मजबूर कर दें जिसे मैनेजमेंट सुनना नहीं चाहता: “अगर ये इतने अच्छे थे, तो इन्हें पहले क्यों नहीं खिलाया?”

गुवाहाटी टेस्ट के पीछे विकसित यह तनाव यही संकेत देता है कि मैनेजमेंट अभी भी उस मानसिकता से पूरी तरह बाहर नहीं आया है जहाँ नए खिलाड़ियों को तभी मौका मिलता है जब सिस्टम मजबूर हो जाए, न कि जब वे उसके लायक हों। यह मानसिकता भारतीय क्रिकेट को एक ऐसे सुरक्षित दायरे में रखती है जहाँ प्रयोग, भरोसा और निष्पक्ष अवसर—all three—अक्सर सिर्फ बातों में रह जाते हैं। और असली हकीकत यह होती है कि खिलाड़ी चाहे जितना अच्छा खेल ले, उसे तभी मौका मिलेगा जब वह सिस्टम के लिए सुविधाजनक समय पर उपलब्ध हो—न कि जब वह तैयार हो, भूखा हो और देश के लिए खेलने को आतुर हो।

अगर यही माहौल चलता रहा, तो यह सिर्फ सरफराज, नायर या ईश्वरन का नहीं, बल्कि पूरी क्रिकेट संस्कृति का नुकसान होगा। भारत जैसे देश में जहाँ टैलेंट हर सीजन फूटता है, वहाँ यह असुरक्षा सबसे बड़ा विरोधाभास पैदा करती है—एक तरफ दुनिया कहती है कि भारत के पास सबसे मजबूत बेंच है, दूसरी तरफ यही बेंच मैदान में उतरने का मौका पाने के लिए महीनों, कभी-कभी सालों तक तरसती रहती है। और जब सिस्टम भीतर ही भीतर इस डर से चलता है कि “नई सफलता पुराने फैसलों को बेनकाब कर देगी,” तो वह सिस्टम कमजोर पड़ने लगता है, चाहे उसके भीतर कितनी भी प्रतिभा क्यों न छिपी हो।

आख़िरकार, यही सवाल हवा में तैरता रह जाता है—क्या भारतीय टीम मैनेजमेंट वाकई युवाओं को मौका देने से इसलिए डर रहा है क्योंकि वे असफल हो सकते हैं… या इसलिए क्योंकि वे सफल हो सकते हैं? और अगर जवाब दूसरा है, तो यह सिर्फ चयन की विफलता नहीं, बल्कि आत्मविश्वास की कमी का सबसे बड़ा सबूत है।

समस्या की जड़ यहीं है—जब सफलता से डर पैदा होने लगे, तो यह समझ लेना चाहिए कि चयन सिर्फ कौशल का मामला नहीं रहा, बल्कि सत्ता, धारणाओं और नियंत्रण का खेल बन चुका है। सरफराज, ईश्वरन और करुण नायर जैसे खिलाड़ियों को लगातार किनारे रखना शायद इसीलिए आसान है, क्योंकि उनकी सफलता कई पुराने फैसलों के चेहरों पर दरार डाल सकती है। लेकिन एक टीम, एक देश और एक सिस्टम तभी बड़ा बनता है जब वह अपनी असुरक्षाओं से ऊपर उठकर सही को सही और योग्य को योग्य मानने की हिम्मत जुटाए। भारतीय क्रिकेट के पास प्रतिभा की कोई कमी नहीं—कमी है तो बस उस भरोसे की, जो हर खिलाड़ी को समान रूप से मिलना चाहिए। और जब तक यह भरोसा बराबर नहीं बंटेगा, तब तक अवसर एक विशेषाधिकार बने रहेंगे, और भारतीय क्रिकेट अपनी ही छाया से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करता रहेगा।


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