



आज भारतीय घरेलू क्रिकेट को लेकर सिर्फ़ सवाल उठाने का नहीं, बल्कि एक ठोस संभावना दिखाने का भी सही वक्त है। विजय हज़ारे ट्रॉफी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि अगर इसे सही तरीके से मैनेज किया जाए, तो घरेलू क्रिकेट अपने आप में बड़े मैच बन सकता है। जैसे ही Rohit Sharma और Virat Kohli मैदान में उतरे, स्टेडियम भरे, सोशल मीडिया जाग उठा और हर बॉल पर नज़रें टिक गईं। यह कोई संयोग नहीं है, यह सीधा संकेत है कि घरेलू क्रिकेट में भी वही ताकत है जो इंटरनेशनल मैचों में होती है—बस फर्क है मैनेजमेंट और कहानी कहने के तरीके का।
अब ज़रा उस पल पर रुकिए जब रोहित शर्मा पहली ही गेंद पर आउट हुए। स्टेडियम में सन्नाटा छा गया, कई दर्शक निराश होकर बाहर निकलने लगे। लेकिन असली सवाल ये है—क्या किसी ने उस गेंदबाज़ के बारे में जानने की कोशिश की, जिसने भारत के कप्तान को पहली ही गेंद पर पवेलियन भेज दिया? बहुत कम लोग जानते हैं कि वह गेंद Devendra Bora की थी—उत्तराखंड का एक 25 साल का तेज़ गेंदबाज़, जो अपना सिर्फ़ तीसरा लिस्ट-ए मैच खेल रहा था। यही वो मोमेंट था, जहां घरेलू क्रिकेट की असली कहानी जन्म ले सकती थी, लेकिन हम उसे पहचान ही नहीं पाए।
यही वह जगह है, जहां Board of Control for Cricket in India और ब्रॉडकास्टर्स दोनों से सवाल पूछा जाना चाहिए। अगर हर खेल चैनल सिर्फ़ इंटरनेशनल या आईपीएल हाइलाइट्स दिखाने के बजाय इन घरेलू मैचों को ठीक से स्ट्रीम करे, खिलाड़ियों की बैकग्राउंड स्टोरी बताए, और हर बड़े मोमेंट को सही संदर्भ दे—तो सोचिए घरेलू क्रिकेट कितना बड़ा बन सकता है। आज हर कोई रोहित शर्मा को जानता है, लेकिन Devendra Bora को नहीं। जबकि असल क्रिकेटिंग वैल्यू उसी कहानी में छुपी है—एक छोटे राज्य का गेंदबाज़, जिसने भारत के सबसे बड़े बल्लेबाज़ को पहली गेंद पर आउट किया।
यही कहानी स्पॉन्सर्स को भी आकर्षित कर सकती है। जब बड़े नाम खेल रहे हों और उनके सामने उभरते हुए खिलाड़ी चमक रहे हों, तो ब्रांड्स खुद-ब-खुद निवेश करना चाहेंगे। समस्या यह नहीं है कि घरेलू क्रिकेट बिकाऊ नहीं है, समस्या यह है कि उसे कभी सही पैकेजिंग ही नहीं मिली। अगर हर मैच को एक “इवेंट” की तरह ट्रीट किया जाए, प्री-मैच शोज़ हों, खिलाड़ी प्रोफाइल्स हों, माइक्रो-डॉक्यूमेंट्रीज़ हों—तो घरेलू क्रिकेट सिर्फ़ क्रिकेट नहीं रहेगा, कंटेंट बन जाएगा।
विराट कोहली का 77 रन बनाना भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उन्होंने सिर्फ़ रन नहीं बनाए, बल्कि अपने खेल में नए शॉट्स जोड़े, रिस्क लिया, खुद को चुनौती दी। ये सब बातें अगर सही ढंग से दर्शकों तक पहुंचें, तो घरेलू क्रिकेट भी सीखने का मंच बन सकता है। लेकिन दिक्कत ये है कि मैच खत्म होते ही चर्चा फिर वहीं लौट आती है—“कोहली शतक से चूक गए” या “रोहित फेल हो गए।” इस बीच, घरेलू क्रिकेट के असली हीरो चुपचाप फ्रेम से बाहर चले जाते हैं।
यहां दर्शकों की भी जिम्मेदारी बनती है। अगर हम सिर्फ़ स्टार देखने आएंगे और उनके आउट होते ही स्टेडियम खाली कर देंगे, तो हम खुद घरेलू क्रिकेट को छोटा बना रहे हैं। हमें ये समझना होगा कि क्रिकेट सिर्फ़ नामों से नहीं, प्रतिस्पर्धा से बड़ा होता है। Devendra Bora जैसे खिलाड़ियों को पहचानना, उनकी कहानी जानना, वही क्रिकेट संस्कृति को मज़बूत बनाता है।
सच तो यह है कि घरेलू क्रिकेट को बड़ा बनाने के लिए किसी क्रांति की ज़रूरत नहीं है। जो चीज़ें आईपीएल और इंटरनेशनल क्रिकेट में काम करती हैं—अच्छी ब्रॉडकास्ट क्वालिटी, मज़बूत नैरेटिव, खिलाड़ी-केंद्रित स्टोरीटेलिंग—वही चीज़ें यहां भी लागू करनी होंगी। फर्क सिर्फ़ इतना है कि यहां फोकस सिर्फ़ सुपरस्टार्स पर नहीं, बल्कि अगले सुपरस्टार्स पर होना चाहिए।
अंत में बात बहुत साफ़ है। घरेलू क्रिकेट में दम है, दर्शक हैं, सितारे हैं और कहानियां भी हैं। कमी सिर्फ़ एक चीज़ की है—सही मैनेजमेंट और सही विज़न। अगर बीसीसीआई, ब्रॉडकास्टर्स और दर्शक—तीनों मिलकर इस मंच को गंभीरता से लें, तो घरेलू क्रिकेट अपने आप “बड़ा मैच” बन जाएगा। वरना हर बार वही होगा—स्टार आएंगे तो शोर होगा, और जैसे ही वे जाएंगे, घरेलू क्रिकेट फिर से खामोशी में डूब जाएगा।
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