



140 साल की प्रतिद्वंद्विता, लेकिन एक देश में जाकर कहानी खत्म क्यों हो जाती है?
एशेज की बात आते ही दिमाग में सबसे पहले ‘महान प्रतिद्वंद्विता’ का टैग चिपक जाता है। 140 साल पुराना इतिहास, अनगिनत क्लासिक मुकाबले, और पीढ़ियों से चला आ रहा गर्व। लेकिन ज़रा रुककर सवाल पूछिए—क्या यह प्रतिद्वंद्विता हर जगह सच में बराबरी की है? या फिर ऑस्ट्रेलिया की ज़मीन पर कदम रखते ही यह मुकाबला सिर्फ एक दिशा में बहने लगता है?
2025-26 की मौजूदा सीरीज़ ने इस असहज सच्चाई को फिर से सामने रख दिया है। एडिलेड में तीसरा टेस्ट जीतकर ऑस्ट्रेलिया ने 3-0 की अजेय बढ़त बना ली। क्रिसमस आने से पहले ही एशेज इंग्लैंड के हाथ से निकल चुका है। अब चर्चा यह नहीं है कि इंग्लैंड कैसे वापसी करेगा, बल्कि यह है कि क्या वह क्लीन स्वीप से बच पाएगा। और यहीं से पूरी बहस का असली केंद्र शुरू होता है।
इंग्लैंड में एशेज: जहां प्रतिद्वंद्विता सांस लेती है
अगर भावनाओं को एक तरफ रखकर सिर्फ आंकड़ों को देखा जाए, तो तस्वीर काफ़ी साफ़ है। इंग्लैंड में खेले गए 173 एशेज टेस्ट में इंग्लैंड ने 54 और ऑस्ट्रेलिया ने 52 मैच जीते हैं। लगभग बराबरी। इसके अलावा 67 ड्रॉ—जो अक्सर आलोचना का शिकार होते हैं—असल में इस प्रतिद्वंद्विता की जान हैं।
ड्रॉ का मतलब उबाऊ क्रिकेट नहीं, बल्कि लंबी खिंचती लड़ाई। सीरीज़ आख़िरी टेस्ट तक ज़िंदा रहती है। हर मैच के साथ अनिश्चितता बनी रहती है। यही वह माहौल है जहां एशेज सच में एशेज जैसा लगता है—जहां कोई भी टीम पहले से विजेता नहीं होती।
ऑस्ट्रेलिया में एशेज: जहां कहानी पहले से लिखी होती है
अब वही मुकाबला ऑस्ट्रेलिया में रख दीजिए। 175 टेस्ट, और ऑस्ट्रेलिया की 93 जीत। इंग्लैंड की सिर्फ 56। ड्रॉ की संख्या अचानक घटकर 26 रह जाती है। यहां ड्रामा हो सकता है, एक-दो सेशन रोमांचक हो सकते हैं, लेकिन बड़ी तस्वीर लगभग हर बार एक जैसी रहती है।
सीरीज़ का पैटर्न और भी ज्यादा चुभने वाला है। ऑस्ट्रेलिया में हुई 37 एशेज सीरीज़ में से 21 ऑस्ट्रेलिया ने जीती हैं। इंग्लैंड सिर्फ 14 बार। और सबसे अहम बात—यहां सीरीज़ अक्सर आख़िरी टेस्ट से पहले ही तय हो जाती है। जब मुकाबला बार-बार समय से पहले खत्म हो जाए, तो प्रतिद्वंद्विता की धार अपने आप कुंद हो जाती है।
आधुनिक दौर की सबसे बड़ी गवाही
अगर कोई कहे कि यह सब पुराने ज़माने की बात है, तो आधुनिक दौर उसे और कठोरता से झुठलाता है। ऑस्ट्रेलिया ने आख़िरी बार इंग्लैंड में एशेज सीरीज़ 2001 में जीती थी। उसके बाद 2019 और 2023 जैसी सीरीज़ आईं, जहां ऑस्ट्रेलिया मज़बूत होने के बावजूद निर्णायक वार नहीं कर पाया। यही असली प्रतिस्पर्धा है—जहां जीत पक्की नहीं होती।
इसके उलट, ऑस्ट्रेलिया में इंग्लैंड अब लगातार 18 एशेज टेस्ट से जीत से दूर है। यह आंकड़ा सिर्फ खराब फॉर्म नहीं, बल्कि एक गहरी संरचनात्मक समस्या की ओर इशारा करता है। छह में से सात घरेलू एशेज सीरीज़ में ऑस्ट्रेलिया ने तीसरे टेस्ट तक सीरीज़ अपने नाम कर ली है। यह कोई संयोग नहीं है, यह एक पैटर्न है।
क्या एशेज सिर्फ इंग्लैंड में ही ‘न्यायपूर्ण’ है?
यह कहना शायद कड़वा लगे, लेकिन आंकड़े यही बताते हैं—एशेज इंग्लैंड में एक खुली लड़ाई है, जबकि ऑस्ट्रेलिया में अक्सर एकतरफा मार्च। नाम, इतिहास और भावनाओं के दम पर हम इसे बराबरी की प्रतिद्वंद्विता कहते रह सकते हैं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई अलग है।
The Ashes आज भी एक महान सीरीज़ है, लेकिन उसकी आत्मा इंग्लैंड में ज्यादा ज़िंदा दिखती है। ऑस्ट्रेलिया में वह अक्सर एक पूर्वानुमान बन जाती है—जहां इंग्लैंड लड़ता है, पर कहानी शायद पहले ही लिखी जा चुकी होती है।
और जब कप्तान Pat Cummins मैच के बाद शांत मुस्कान के साथ बात करता है, तो वह सिर्फ एक जीत का बयान नहीं देता—वह उस सिस्टम का प्रतिनिधित्व करता है, जिसने एशेज को अपने घर में लगभग रूटीन बना दिया है।
शायद इसी लिए हर कुछ साल बाद वही पुरानी लाइन फिर लौट आती है—“एशेज ऑस्ट्रेलिया को पहले ही दे दो।” यह मज़ाक नहीं, बल्कि एक असहज सच का संक्षेप है।
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