⭐ ग्लैमर के बाहर भी क्रिकेट चलता है
विजय हज़ारे ट्रॉफी में कोहली–रोहित की चमक और बाकी कहानियों की अदृश्यता
भारतीय क्रिकेट में एक सच्चाई हर बार सामने आ जाती है—जहाँ Virat Kohli और Rohit Sharma होते हैं, वहाँ रोशनी उन्हीं पर टिक जाती है। विजय हज़ारे ट्रॉफी भी इसका अपवाद नहीं रही। घरेलू क्रिकेट का यह मंच, जो नए चेहरों और भूले-बिसरे दावेदारों के लिए बना है, एक बार फिर सुपरस्टार्स की वापसी से हेडलाइन-ड्रिवन इवेंट बन गया।
कोहली और रोहित का खेलना गलत नहीं है। उल्टा, उनका घरेलू क्रिकेट खेलना एक स्वस्थ संकेत है। लेकिन सवाल यह है—क्या बाकियों का खेल, उनकी मेहनत और उनका प्रदर्शन सिर्फ इसलिए गौण हो जाना चाहिए क्योंकि मैदान पर दो बड़े नाम मौजूद हैं?


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🎯 चयनकर्ताओं की नज़र और कैमरे की दिशा—दोनों एक तरफ़?
जब बोर्ड और चयनकर्ता घरेलू क्रिकेट की अहमियत पर ज़ोर देते हैं, तब यह उम्मीद भी बनती है कि हर प्रदर्शन को बराबरी से आँका जाएगा। लेकिन हकीकत यह है कि कैमरा जहाँ रुकता है, वहीं चर्चा रुक जाती है।
कोहली की 131 हो या रोहित की 155—वे शानदार पारियाँ हैं। मगर उसी टूर्नामेंट में जो बाकी खिलाड़ी कर रहे हैं, वह अक्सर “फुटनोट” बनकर रह जाता है।
यह समस्या खिलाड़ियों की नहीं, नैरेटिव की है।
🔥 देवदत्त पडिक्कल: रिकॉर्ड चेज़, लेकिन रिकॉर्डेड यादें नहीं
413 के लक्ष्य का पीछा करते हुए 147 रन—यह कोई साधारण पारी नहीं थी। Devdutt Padikkal ने जो किया, वह किसी भी स्तर पर मैच-डिफाइनिंग था।
लेकिन चर्चा कहाँ हुई? कहीं नहीं। क्योंकि उसी दिन बड़े नाम सेंचुरी कर रहे थे। सवाल उठता है—अगर 147 भी सुर्ख़ी न बने, तो फिर खिलाड़ी क्या करे?
💥 रिंकू सिंह: असरदार, लेकिन अदृश्य
Rinku Singh ने लगातार मैच जिताऊ पारियाँ खेलीं—67 और फिर 106। स्ट्राइक रेट, इंटेंट, फिनिशिंग—सब कुछ मौजूद।
फिर भी, उनकी पारियों को “रिकैप” में समेट दिया गया। टी20 वर्ल्ड कप टीम में चुने जाने के बाद भी, घरेलू मंच पर उनका प्रभाव चर्चा का केंद्र नहीं बन पाया। यह दिखाता है कि असर और अटेंशन हमेशा समानुपाती नहीं होते।
🔁 ऋषभ पंत: हर फॉर्मेट में वही कहानी
गुजरात के खिलाफ 70 रन की पारी ने Rishabh Pant की वापसी की क्षमता फिर साबित की। लेकिन उसी मैच में कोहली के 77 ने सारी हवा खींच ली।
यह पहली बार नहीं है जब पंत को किसी दिग्गज की छाया में खेलना पड़ा हो—अंतरराष्ट्रीय हो या घरेलू। सवाल यह नहीं कि पंत अच्छा खेल रहे हैं या नहीं, सवाल यह है कि क्या उनका अच्छा खेल कभी “मुख्य खबर” बनेगा?
⏳ पृथ्वी शॉ: मौके हैं, लेकिन सुर्खियाँ नहीं
Prithvi Shaw के लिए यह टूर्नामेंट जीवनदान जैसा है। 46 और 51—ठीक-ठाक पारियाँ, लेकिन चयनकर्ताओं का ध्यान खींचने के लिए शायद नाकाफ़ी।
आज के सिस्टम में “अच्छा” काफी नहीं है। आपको “असाधारण” होना पड़ेगा, और वो भी तब, जब मैदान पर सुपरस्टार न हों। यह दबाव सिर्फ शॉ पर नहीं, हर कमबैक करने वाले खिलाड़ी पर है।
👥 ख़ान ब्रदर्स: रन बने, ख़बर नहीं
जब रोहित गोल्डन डक पर आउट हुए, तब भी चर्चा उन्हीं की रही। वहीं Sarfaraz Khan और Musheer Khan की 55-55 रन की पारियाँ लगभग गायब रहीं।
यह घरेलू क्रिकेट की सबसे बड़ी विडंबना है—अगर आप सुपरस्टार नहीं हैं, तो आपको शोर मचाना पड़ेगा। सिर्फ रन बनाना अब काफी नहीं।
🧠 निष्कर्ष: घरेलू क्रिकेट मंच है, लेकिन माइक किसके हाथ में?
विजय हज़ारे ट्रॉफी इस वक्त प्रतिभा और अनुभव का बेहतरीन मिश्रण है। कोहली और रोहित का खेलना टूर्नामेंट के लिए फायदेमंद है, इसमें कोई शक नहीं।
लेकिन अगर हर बार रोशनी सिर्फ उन्हीं पर पड़ेगी, तो बाकी खिलाड़ी सिर्फ “रिमाइंडर” बनकर रह जाएंगे—चयनकर्ताओं के लिए भी और दर्शकों के लिए भी।
घरेलू क्रिकेट कहानियों से भरा है। सवाल यह है—क्या हम उन कहानियों को सुनने के लिए तैयार हैं, या हमें सिर्फ वही आवाज़ सुनाई देती है जो पहले से सबसे ऊँची है?
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